📖 भगवद गीता – अध्याय 3: कर्म योग (Karma Yog) यह अध्याय कर्म और उसके महत्व को स्पष्ट करता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि केवल संन्यास नहीं, बल्कि कर्तव्यपूर्वक कर्म करना ही मोक्ष का मार्ग है। 🔷 अध्याय 3 की विस्तार से व्याख्या (Explanation in Hindi): अर्जुन की जिज्ञासा – अर्जुन पूछते हैं कि यदि ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर युद्ध जैसे कर्म करने को क्यों कहा जा रहा है? कर्म की अनिवार्यता – श्रीकृष्ण बताते हैं कि कोई भी व्यक्ति क्षण भर भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों के अनुसार सब कर्म करते हैं। निष्काम कर्म का महत्व – केवल उन कर्मों को करें जिनसे आसक्ति न हो। फल की चिंता छोड़कर कर्म करना ही सच्चा योग है। यज्ञभावना से कर्म – श्रीकृष्ण यज्ञ की परंपरा का उल्लेख करते हैं। जो व्यक्ति यज्ञ (समर्पण भाव) से कर्म करता है, वह पाप से बचता है। स्वधर्म का पालन – हर व्यक्ति को अपने धर्म (कर्तव्य) का पालन करना चाहिए, चाहे वह कठिन ही क्यों न लगे। श्रेष्ठ व्यक्ति की भूमिका – जो श्रेष्ठजन हैं, वे जो करते हैं, वही समाज अनुसरण करता है। इसलिए ज्ञानियों को भी कर्म करना चाहिए। कर्म और मोह – मोह, क्रोध और काम – यह तीनों आत्मा के शत्रु हैं। इनका त्याग ही मुक्ति की राह है। ज्ञान से पहले कर्म – श्रीकृष्ण कहते हैं कि पहले कर्म करो, फिर ज्ञान और ध्यान के योग्य बनो। ईश्वर को समर्पित कर्म – जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को ईश्वर को अर्पण करता है, वह बंधन से मुक्त होता है। इस अध्याय का सार – निष्काम भाव से, मोह रहित होकर, अपने धर्म के अनुसार कर्म करते रहना ही गीता का कर्म योग है। 🔖 सारांश: अध्याय 3 बताता है कि त्याग का अर्थ कर्म त्याग नहीं, बल्कि फल की अपेक्षा का त्याग है। जो व्यक्ति अपने स्वधर्म का पालन करते हुए निष्काम भाव से कर्म करता है, वही सच्चा योगी है।